Wednesday, October 31, 2012


शिक्षा को पूंजीपतियों के दायरे से निकालना आवश्‍यक है.. निजीकरण के चलते शिक्षा व्‍यावसायिक हो गयी है। यह सुनिश्‍िचत किया जाना चाहिए कि शिक्षा संस्‍थानों मे निर्णय अभिभावक, छात्र, शिक्षक और प्रबंधतन्‍त्र सभी मिलकर लें। अन्‍यथा, मात्र अर्थदोहन का माध्‍यम बने हुए ऐसे शिक्षा संस्‍थानों का समाज पर अत्‍यन्‍त घातक प्रभाव होगा।

Tuesday, October 30, 2012

संस्‍कृत की अनुपस्थिति में भारत में हिन्‍दी सहित अनेक भाषाओं की अवस्‍था अनाथ बच्‍चों जैसी है। संस्‍कृत को तज कर अंग्रेजी और उर्दू की ओर हिन्‍दी जितने कदम बढ़ा रही है, उतना ही झेंपने वाली स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। अवचेतन में अंग्रेजी के आधिपत्‍य के चलते अंग्रेजी शैली के हिन्‍दी वाक्‍यांश आम हो चुके हैं। बोलचाल में विरले ही ऐसे मिलेंगे जो अंग्रेजी के सम्मिश्रण के बिना अपने विचारों को सहजता से अभिव्‍यक्‍त कर सकें। हिन्‍दी में अनुवाद की भी यही‍ स्थिति है। हिन्‍दी चाह कर भी वो करिश्‍मा शायद ही कर सके जो अंग्रेजी ने कर दिखाया है। अंग्रेजी का पथानुगमन हिन्‍दी को विपन्‍न ही कर रहा है। संस्‍कृत को पंडितों की भाषा मान कर लोग द्वेष करने लगे हैं- ऐसा मैंने पाया है। ऐसे में आवश्‍यकता इस बात की है कि भारतवासी पहले अपने अवचेतन से दासता का केंचुल उतार फेंके और सच्‍चे अर्थों में स्‍वयं को मुक्‍त अनुभव कर सकें। प्रश्‍न यह है कि रूपान्‍तरण हो तो कैसे... गांधी को हम पहले ही नकार चुके हैं.. जिन्‍होंने हमारे आगे वास्‍तविक भारत एवं स्‍वराज का एक धुंधला सा चित्र खींचा था.. अतीत के प्रति हमारी वितृष्‍णा हमें किस ओर ले जा रही है... ऐसे में भारतीय संस्‍कृति की बेल झुलस रही है तो आश्‍चर्य क्‍या..