हुआ कभी जो
उसको
हमको फिर दुहराना है..
जल पर शैल तिरा कर
सागर सेतु बंधाना है..
दीवाली पर हम सब मिलजुल
दीप सजायें फिर
बाती से लौ का रिश्ता ये
बहुत पुराना है...
अभी बस इतना.. साथ ही आप सबको दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें
Friday, October 16, 2009
Friday, August 14, 2009
बाप रे
दोस्तों, आप सबको स्वाधीनता दिवस की ढेर सारी शुभकामनायें।
और एक सवाल, आखिर देश हमारा इतनी तरक्की कर गया तो सबके चेहरे धुंवा-धुंवा क्यों हैं..
गांधी ने सत्य के साथ प्रयोग किया तो आजादी हासिल हुई.. वह प्रयोग तो सफल हो गया..
मगर हमारे प्रयोग जो कपटपूर्ण तरीकों से चल रहे हैं खुद के साथ.. वे हमारी नीतियों की विफलता के लिए स्पष्ट उत्तरदायी हैं।
सब के सब खुद में चोर... बाप रे।
और एक सवाल, आखिर देश हमारा इतनी तरक्की कर गया तो सबके चेहरे धुंवा-धुंवा क्यों हैं..
गांधी ने सत्य के साथ प्रयोग किया तो आजादी हासिल हुई.. वह प्रयोग तो सफल हो गया..
मगर हमारे प्रयोग जो कपटपूर्ण तरीकों से चल रहे हैं खुद के साथ.. वे हमारी नीतियों की विफलता के लिए स्पष्ट उत्तरदायी हैं।
सब के सब खुद में चोर... बाप रे।
कबीर का यह दोहा
हां तो बात चल रही थी कबीर के दोहे पर...
कि
लकड़ी जल कोयला भई कोयला जल भई राख।
मैं बावरि ऐसी जली कोयला भई ना राख।।
बचपन में जैसा कि खयाल आता है इसका अर्थ मुझे यही समझ में आता था कि लकड़ी जल कर कोयला हो गयी और कोयला राख.. मैं पगली ऐसी जली कि कहीं की ना रही। सामान्यतया हिन्दी के प्राध्यापक भी शायद इसका कुछ ऐसा ही अर्थ करें।
बात कुछ जमती नहीं.. क्या कबीर ने इस दोहे में अपने जीवन की निस्सारता के प्रति इंगित किया है या कुछ और है जो इस दोहे में छिपा हुआ है।
अवधी में एक शब्द है बंवर.. जिसका अर्थ आप लतागुल्म या झाड़ी जैसा कुछ लगा सकते हैं। 'मैं बावरि' मतलब 'मैं' यानी अहंकार की बंवर। अब आगे देखिए..
लकड़ी जल कोयला भई, कोयला भई राख.. और मेरे अहंकार की बंवर ऐसी जली कि न कोयला हुई न ना राख।
रह गयी लकड़ी और कोयला.. इसका क्या अर्थ..
लकड़ी का जल कर कोयला होना और कोयला का राख होना ये प्रकृति के नियमों के अन्तर्गत है.. मगर अहंकार तो ऐसे जला कि वहां प्रकृति के कोई नियम लागू ही नहीं हुए। यहां कबीर द्वैत से परे किसी ऐसी चेतना-भूमि पर खड़े हैं जहां प्रकृति के नियम अवरुद्ध हो गये हैं।
कुल मिलाकर कबीर का यह दोहा उनकी साधना के उस स्तर से नि:सृत है जहां उनका उनका अहंकार उन्मूलित हो चुका है.. और उनके अहंकार की बंवर (झाल-झंखाड़) ब्रह्माग्नि में भस्मीभूत हो रहे हैं।
चलिए बहुत हो गया अभी के लिए इतना ही... क्या खयाल है आपका।
कि
लकड़ी जल कोयला भई कोयला जल भई राख।
मैं बावरि ऐसी जली कोयला भई ना राख।।
बचपन में जैसा कि खयाल आता है इसका अर्थ मुझे यही समझ में आता था कि लकड़ी जल कर कोयला हो गयी और कोयला राख.. मैं पगली ऐसी जली कि कहीं की ना रही। सामान्यतया हिन्दी के प्राध्यापक भी शायद इसका कुछ ऐसा ही अर्थ करें।
बात कुछ जमती नहीं.. क्या कबीर ने इस दोहे में अपने जीवन की निस्सारता के प्रति इंगित किया है या कुछ और है जो इस दोहे में छिपा हुआ है।
अवधी में एक शब्द है बंवर.. जिसका अर्थ आप लतागुल्म या झाड़ी जैसा कुछ लगा सकते हैं। 'मैं बावरि' मतलब 'मैं' यानी अहंकार की बंवर। अब आगे देखिए..
लकड़ी जल कोयला भई, कोयला भई राख.. और मेरे अहंकार की बंवर ऐसी जली कि न कोयला हुई न ना राख।
रह गयी लकड़ी और कोयला.. इसका क्या अर्थ..
लकड़ी का जल कर कोयला होना और कोयला का राख होना ये प्रकृति के नियमों के अन्तर्गत है.. मगर अहंकार तो ऐसे जला कि वहां प्रकृति के कोई नियम लागू ही नहीं हुए। यहां कबीर द्वैत से परे किसी ऐसी चेतना-भूमि पर खड़े हैं जहां प्रकृति के नियम अवरुद्ध हो गये हैं।
कुल मिलाकर कबीर का यह दोहा उनकी साधना के उस स्तर से नि:सृत है जहां उनका उनका अहंकार उन्मूलित हो चुका है.. और उनके अहंकार की बंवर (झाल-झंखाड़) ब्रह्माग्नि में भस्मीभूत हो रहे हैं।
चलिए बहुत हो गया अभी के लिए इतना ही... क्या खयाल है आपका।
Saturday, August 8, 2009
लकड़ी जल कोयला भई
कबीर ने कहा है..
लकड़ी जल कोयला भई कोयला जल भई राख।
मैं बावरि ऐसी जली कोयला भई ना राख
।।
अगर मुझे सही सही याद है तो कबीर का ये दोहा ऐसे ही है..
कोई पाठक हमें इस दोहे का अर्थ समझायेंगे।
दरअसल थोड़ा हम आपसे जान लें फिर इस दोहे के बारे और विस्तृत चर्चा करेंगे।
और अभी देर भी हो रही है मुझे.. दुबारा इस पोस्ट पर आऊं तब तक आगन्तुक पाठक इसके अर्थ को खोलें
लकड़ी जल कोयला भई कोयला जल भई राख।
मैं बावरि ऐसी जली कोयला भई ना राख
।।
अगर मुझे सही सही याद है तो कबीर का ये दोहा ऐसे ही है..
कोई पाठक हमें इस दोहे का अर्थ समझायेंगे।
दरअसल थोड़ा हम आपसे जान लें फिर इस दोहे के बारे और विस्तृत चर्चा करेंगे।
और अभी देर भी हो रही है मुझे.. दुबारा इस पोस्ट पर आऊं तब तक आगन्तुक पाठक इसके अर्थ को खोलें
बस अभी अभी
बस अभी अभी ये खयाल आया कि कई रोज़ का सोचा हुआ एक काम पूरा कर दूं। अपने आलस्य का ठीकरा अपनी व्यस्तताओं के सिर पर जृरूर फोडृ दूं मगर हकीकत तो यही है कि अक्सर मैं खयालों के भंवरजाल से निकल ही नहीं पाता.. ऐसे में क्या लिखूं। ...कभी जुगनू की तरह कोई खयाल कौंधा भी तो रोजृमर्रा की धकापेल में कहीं पोटली से अगलबगल सरक गया.. ऐसा भी होता है।
खैर, ये ब्लाग सिर्फ अपनेआप को कोंचने के उद्देश्य से शुरू किया है जिससे अपने भीतर का अधिक से अधिक प्रकट कर सकूं। मगर, ऐसा भी नहीं कि अपने नवजात विचारों को मैं यहां प्रकट करूंगा.. यकीन मानिए थोड़ा ठोंक बजाकर काम करने की मेरी पुरानी आदत है.. कलम के मामले में थोड़ी सी भी गैरजिम्मेदारी मुझे भीतर से नर्वस कर देती है। हां चूंकि यहां जो भी सोचा लिखा और प्रकाशित किया जैसा कुछ है तो टाइपिंग की भूल आदि के लिए सुधी पाठक मुझ पर अवश्य मुस्कुरा देंगे.. ऐसी अपेक्षा है। लिखना कम समझना ज्यादा जैसा चलेगा यहां कुछ।
खैर, ये ब्लाग सिर्फ अपनेआप को कोंचने के उद्देश्य से शुरू किया है जिससे अपने भीतर का अधिक से अधिक प्रकट कर सकूं। मगर, ऐसा भी नहीं कि अपने नवजात विचारों को मैं यहां प्रकट करूंगा.. यकीन मानिए थोड़ा ठोंक बजाकर काम करने की मेरी पुरानी आदत है.. कलम के मामले में थोड़ी सी भी गैरजिम्मेदारी मुझे भीतर से नर्वस कर देती है। हां चूंकि यहां जो भी सोचा लिखा और प्रकाशित किया जैसा कुछ है तो टाइपिंग की भूल आदि के लिए सुधी पाठक मुझ पर अवश्य मुस्कुरा देंगे.. ऐसी अपेक्षा है। लिखना कम समझना ज्यादा जैसा चलेगा यहां कुछ।
Subscribe to:
Posts (Atom)