Friday, August 26, 2011

राहुल गांधी की लोकपाल अवधारणा - एक दूसरा पक्ष

आज माननीय राहुल गांधी जी के माध्यम से लोकपाल को मजबूत बनाने के लिए एक संवैधानिक निकाय के रूप में उसके सृजन का प्रस्ताव चर्चा में आया है जो संसद के प्रति उत्तरदायी हो और प्रसंगवश उसके स्वरूप निर्धारण हेतु चुनाव आयोग का नाम लिया गया है। साथ ही, माननीय राहुल गांधी जी का यह प्रस्ताव है कि इस विचार के प्रकाश में बहस को आगे बढ़ाया जाये।
यहां मेरे विचार से किसी भी राज्य के संविधान में केवल उन विचारों का समावेश होना चाहिए जो दिशावाही प्रकृति के हों, और राज्य के संचालन में जिनकी केन्द्रीय वैचारिक भूमिका प्रतीत होती हो। संविधान में संशयात्मक प्रकृति के विचारों को स्थान देने का विचार आत्म‍घाती है। गीता में सुस्पष्ट है- संशयात्मा विनश्यति। आगे चलकर हम यह भी स्पष्‍ट करेंगे कि यह विचार किस तरह भारतीय चिन्तंन परम्परा के प्रतिकूल है। यहां पहले यह स्पष्ट होना आवश्यक है कि संविधान अथवा मातृ-अधिनियम का निर्माण किन तत्वों से होता है और संविधान निर्माण के पश्चात् अन्य‍ अधिनियमों के पारित किए जाने की आवश्य्कता क्यों उपस्थित होती है। यहां ध्या‍न में यह भी रखना चाहिए कि संविधान के उपबंधों को अनुच्छेद और अधिनियम के उपबंधों को धारा कहा जाता है, अतएव संविधान निर्माण और अधिनियमन दोनों के पीछे अवधारणाओं में एक सुस्पहष्ट अंतर विद्यमान है।
संविधान के अनुच्छेदों में विधेयात्मक राजनीतिक विचारों का समावेश किया जाता है। पुनश्च्, उन विधेयात्मक विचारों के प्रवाह में जो बाधाएं उपस्थित होती हैं उनके निवारण हेतु अधिनियमन की आवश्याकता होती है।
लोकपाल का विचार अधिनियमन की प्रकृति का है, भारत की जनता आरम्‍भ से ही यह मान कर नहीं चल सकती है, कि उसके द्वारा चुने गये प्रतिनिधि स्वार्थी प्रकृति के और भ्रष्टाचरण युक्त होंगे। वास्तविकता तो यही है कि किसी देश की विधायिका उस देश की जनता की अपनी परछांई ही होती है। अस्तु, यदि लोकपाल का विचार संविधान में सम्मिलित किया जाता है तो संविधान की प्रस्ता्वना में समस्त सकारात्मकक विचारों के साथ ही इस आशय का संशोधन करने की भी आवश्यकता होगी कि हम अपनी पाशविक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने हेतु इस संविधान को अधिनियमित और आत्मार्पित कर रहे हैं जो कि नितान्त हास्यापस्पद है और भारतीय चिन्तन के सर्वथा प्रतिकूल है जो हर आत्मा में सत् चित् और आनन्द का वास देखती है।
इस प्रकार अब यह स्प्ष्ट हो गया होगा कि संविधान के सभी घटक परस्पर एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी होते हुए संविधान की मूल अवधारणाओं को व्यवहार रूप में चरम तक पहुंचाने के लिए आपस में पूर्ण सामंजस्य के साथ निरन्तर प्रयत्नरत रहते हैं। इस उद्देश्य संसिद्धि में जो नकारात्मक तत्व प्रकट होते हैं उनके अधिनियमन अथवा नियंत्रण हेतु समय और परिस्थितियों के अनुरूप अधिनियमों की आवश्यकता होती है। संविधान हमारे राजनीतिक विचारों की गंगोत्री है जिसमें संशय-जनित विचारों का प्रवेश गंगोत्री में ही विष घोल देने के समान होगा और संविधान की गरिमा को इससे निश्चय ही आघात पहुंचेगा।
आज देश तकनीकी रूप से बहुत प्रगति कर चुका है। अतएव, वर्तमान में यदि आसन्न परिस्थितियों के अनुकूलन हेतु संविधान में किसी संशोधन की आवश्यकता प्रतीत होती है तो भारत की जनता को मताधिकार की तरह ही मताधिकार देने के उपरान्त् अपने चुने हुए प्रतिनिधि को वापस बुलाने के सम्बन्ध में प्राविधान संविधान में अंतर्विष्ट किए जा सकते हैं। भारत की जनता तब निश्चितरूपेण मताधिकार के उपरान्त कुशासन के प्रति अपने क्षोभ की अभिव्यक्ति अपने चुने हुए प्रतिनिधि को वापस बुला करके कर सकेगी और धरना, प्रदर्शन आदि की मात्र वर्जनात्मक आवश्युकता रह जायेगी। जो जनता आज मतदान के बाद बदली हुई परिस्थिति में स्वयं को असहाय अनुभव करती है, उसके घुटन का कोई कारण नहीं रह जायेगा।